2025 मनरेगा में मची लूट: मजदूरों का हक डकार रहे अधिकारी और प्रधान

2025 मनरेगा में मची लूट

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) भारत सरकार की वह महत्वाकांक्षी योजना है जिसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्र के हर मजदूर को रोजगार की गारंटी देना है। इस योजना का मूल उद्देश्य शोषित, वंचित, असहाय और गरीब तबके को काम के माध्यम से आत्मनिर्भर बनाना है। लेकिन जब इस योजना में भ्रष्टाचार अपने चरम पर पहुंच जाए, तो यह सवाल खड़ा करता है कि क्या सच में सरकारी योजनाएं ज़मीन पर लागू हो रही हैं या सिर्फ कागजों तक सीमित रह गई हैं?

जनपद महराजगंज के मिठौरा ब्लॉक की हालिया पड़ताल ने इस सच्चाई की परतें खोल दी हैं।


पड़ताल का सच:

2025 मनरेगा में मची लूट

हमारी टीम ने मिठौरा ब्लॉक के विभिन्न गांवों का दौरा किया, जिसमें प्रमुख रूप से हरिहरपुर, मिठौरा, पनेवा पानेई जैसे गांव शामिल थे। मनरेगा के अंतर्गत इन गांवों में चल रहे कार्यों की जब जमीनी हकीकत जाननी चाही, तो चौकाने वाली सच्चाई सामने आई।

हर गांव में न कोई मजदूर था, न ही कोई कार्य होता दिखा।

2025 मनरेगा में मची लूट

लेकिन हैरानी की बात यह थी कि मस्टररोल (हाजिरी रजिस्टर) जारी थे और उनमें मजदूरों की उपस्थिति दर्ज थी।

कुछ दस्तावेजों में तो प्रतिदिन की हाजिरी तक दर्ज थी, जबकि मौके पर न कोई काम हुआ, न ही मजदूर मौजूद थे।

यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि किस तरह से फर्जीवाड़ा कर सरकारी धन की लूट की जा रही है।


कौन है इस गड़बड़ी के जिम्मेदार?

2025 मनरेगा में मची लूट

इस पूरे घोटाले में स्थानीय ग्राम प्रधान, पंचायत सचिव, और ब्लॉक के कुछ अधिकारी मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। ये लोग मिलीभगत से:

कागजों पर कार्य शुरू कर देते हैं,

मस्टररोल में फर्जी नाम और उपस्थिति दर्ज करते हैं,

मजदूरों के नाम पर भुगतान की प्रक्रिया पूरी करते हैं,

और अंत में सारा पैसा अपनी जेब में डाल लेते हैं।

मजदूर, जिन्हें इस योजना का लाभ मिलना चाहिए, वे आज भी दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं, मजदूरी के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर काट रहे हैं।


मनरेगा का मूल उद्देश्य और उसकी धज्जियां:

मनरेगा का उद्देश्य था:

हर ग्रामीण को साल में कम से कम 100 दिन का रोजगार देना,

पारदर्शिता के साथ कार्यों का संचालन करना,

सामाजिक निगरानी के जरिए भ्रष्टाचार पर रोक लगाना।

लेकिन आज स्थिति यह है कि:

मजदूरों को रोजगार नहीं मिल रहा,

फर्जी हाजिरी के नाम पर भुगतान हो रहा,

पारदर्शिता की जगह अंधकार और मिलीभगत ने ले ली है।


2025 मनरेगा में मची लूट

एक मजदूर की कहानी:

पानेवा पनेइ गांव के एक मजदूर रामसिंह ने बताया,
“हम लोग काम मांगते हैं तो कहते हैं अभी स्कीम बंद है। लेकिन बाद में पता चलता है कि हमारे नाम पर हाजिरी लग चुकी है। बैंक में पैसा भी आता है लेकिन हमको कुछ नहीं मिलता।”
यह केवल रामसिंह की नहीं, बल्कि पूरे गांव के सैकड़ों मजदूरों की कहानी है।


सरकार की भूमिका और लापरवाही:

सरकार ने मनरेगा के तहत हजारों करोड़ रुपए हर साल जारी किए हैं, लेकिन उनकी निगरानी की व्यवस्था कमजोर है। यह लापरवाही ही भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है।
यदि समय रहते ऑडिट, सोशल ऑडिट, और जमीनी सत्यापन की प्रक्रियाएं मजबूत की जाएं, तो इस तरह के घोटालों पर लगाम लग सकती है।

मनरेगा में मची लूट: हर गाँव की कहानी

“कागज़ पर काम, जेबों में पैसा – यही है आज की मनरेगा की असलियत!”

जब 2005 में मनरेगा की शुरुआत हुई, तब इसे एक क्रांतिकारी योजना माना गया – ऐसा कानून जो हर ग्रामीण परिवार को साल में 100 दिन का मज़दूरी का गारंटीड काम देगा। उद्देश्य था – गाँवों में बेरोजगारी दूर करना, गरीबी कम करना और ग्रामीण ढाँचे को मज़बूत करना।

लेकिन अब, लगभग दो दशकों बाद, ज़मीनी हकीकत बहुत ही चौंकाने वाली है। आज हर गाँव की जुबां पर एक ही बात है – “मनरेगा में लूट मची है!”


1. कागज़ पर काम – ज़मीन पर कुछ नहीं

गाँव में रामू मजदूर बताते हैं, “हमारा नाम तो जॉब कार्ड में है, पर हमें तो कोई काम मिला ही नहीं। पर रिकॉर्ड में तो दिखता है कि हमने 45 दिन काम किया और पैसा भी उठा लिया!”

जाँच में पता चला कि ग्राम पंचायत सचिव और ठेकेदार ने मिलकर फर्जी हाजिरी भर दी। पैसा भी निकाल लिया गया, और रामू को भनक तक नहीं लगी।


2. मस्टर रोल की हेराफेरी

मनरेगा में काम की पुष्टि मस्टर रोल से होती है। लेकिन यही कागज अब भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा ज़रिया बन चुका है।

  • जो लोग शहर में हैं, उनके नाम से गाँव में हाजिरी लगती है।
  • मजदूर की जगह मुखिया या पंचायत सदस्य अपने रिश्तेदारों के नाम चढ़ा देते हैं।
  • काम के बदले मजदूरों से ‘कट’ लिया जाता है – “₹100 का काम करो, ₹60 हमें दो।”

3. मशीनों से हो रहा है काम – मजदूर रह गए खाली

मनरेगा का मकसद था मैनुअल लेबर, यानी हाथ से काम कराना। लेकिन गाँवों में जल संरक्षण के काम हों या गड्ढे खुदाई – मशीनों से करवाया जाता है।

मशीन तो चल रही है, लेकिन हाजिरी मजदूरों की लग रही है। पैसा बंट रहा है अधिकारियों और ठेकेदारों में।


4. तकनीक आई, पर पारदर्शिता नहीं

ऑनलाइन जॉब कार्ड, आधार सीडिंग, मोबाइल मॉनिटरिंग – सरकार ने बहुत से तकनीकी सुधार किए हैं। लेकिन गाँवों में इंटरनेट की कमी, जानकारी की कमी और तकनीकी साक्षरता की कमी से ये सब सिर्फ ‘शो-पीस’ बन कर रह गए हैं।


5. कौन सुनता है ग्रामीणों की?

शिकायत करने जाओ तो अधिकारी कहते हैं – “देखेंगे।”

पंचायत सचिव कहते हैं – “सिस्टम डाउन है।”

जिला कार्यालय तक शिकायत पहुंचे तो कहते हैं – “सब कागज़ पर सही है।”

फिर गरीब मजदूर कहां जाए?


निष्कर्ष: क्या वाकई ‘गाँव का विकास’ हो रहा है?

मनरेगा आज भी एक संभावनाओं से भरा कानून है, अगर उसे ईमानदारी से लागू किया जाए। लेकिन जब तक गाँवों में पारदर्शिता, जन-जवाबदेही और सामुदायिक निगरानी नहीं होगी, तब तक मनरेगा केवल एक “लूट की मशीन” बन कर रह जाएगी।


क्या करना चाहिए?

  • ग्राम सभा की ताकत बढ़ाई जाए।
  • सोशल ऑडिट को प्रभावशाली बनाया जाए।
  • मजदूरों को जागरूक किया जाए कि उनका हक क्या है।
  • भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों पर सख्त कार्रवाई हो।

मनरेगा ग्रामीण भारत की रीढ़ बन सकती है, लेकिन जब तक इसकी “लूट की कहानी” नहीं रोकी जाती, तब तक यह सिर्फ कागज़ी विकास बनकर रह जाएगा।

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