उत्तर प्रदेश के महराजगंज जिले के निचलौल तहसील में इस साल मानसून की बेरुखी ने किसानों की कमर तोड़ दी है। धान की खेती पर निर्भर हजारों किसानों के खेत सूखने लगे हैं। नहरों में पानी नहीं, और आसमान से बूंदें नहीं गिर रहीं—ऐसे में किसानों के पास सिंचाई के लिए केवल एक ही विकल्प बचा है: डीजल से चलने वाले पंपिंग सेट। लेकिन डीजल के बढ़ते दामों ने किसानों की आर्थिक हालत और भी खराब कर दी है।
मानसून की विफलता ने बिगाड़ी खेती की तस्वीर
भारत की कृषि व्यवस्था आज भी बड़े पैमाने पर मानसून पर निर्भर है। महराजगंज के किसान भी हर साल धान की रोपाई जून-जुलाई में मानसून की शुरुआत के साथ करते हैं। इस बार बारिश की शुरुआत में थोड़ी बहुत राहत जरूर मिली थी, लेकिन उसके बाद लगातार मौसम ने किसानों को निराश किया। तेज धूप और नमी की कमी ने खेतों को बंजर बना दिया।
धान की फसल नमी और पानी की अत्यधिक मांग करती है। अगर शुरुआती 30 से 45 दिनों तक फसल को पर्याप्त पानी न मिले, तो उसकी उत्पादकता पर गंभीर असर पड़ता है। यही स्थिति इस बार किसानों के सामने खड़ी हो गई है।
पंपिंग सेट बना आखिरी सहारा, लेकिन डीजल की मार भारी
जब नहरों में पानी नहीं आया और बारिश ने भी मुंह फेर लिया, तो किसान पंपिंग सेट का सहारा लेने लगे। हालांकि यह उपाय भी बहुत सस्ता नहीं है। डीजल की कीमतों में वृद्धि ने किसानों की लागत बढ़ा दी है।
निचलौल के घोड़हवां वार्ड निवासी किसान मंगरू बताते हैं, “शुरुआत में थोड़ी बहुत बारिश से उम्मीद जगी थी, लेकिन उसके बाद तो जैसे आसमान ही रूठ गया। अब पंपसेट से पानी चलाना पड़ रहा है, लेकिन डीजल इतना महंगा हो गया है कि एक बार पानी देने में ही सैकड़ों रुपये खर्च हो जाते हैं।”
एक अनुमान के अनुसार, एक एकड़ खेत में एक बार पानी देने के लिए लगभग 3 से 4 लीटर डीजल की आवश्यकता होती है। यदि डीजल का भाव ₹90 से ₹100 प्रति लीटर है, तो सिर्फ सिंचाई पर ही प्रति एकड़ ₹300 से ₹400 खर्च हो जाते हैं। यह लागत हर 4 से 5 दिन में आती है, क्योंकि गर्मी और धूप खेतों को तेजी से सुखा रही है।
कृषि लागत में बेतहाशा वृद्धि और किसानों की आर्थिक बदहाली
खेती पहले से ही घाटे का सौदा बनती जा रही है। बीज, खाद, कीटनाशक, मजदूरी—हर चीज़ की कीमत बढ़ गई है। ऐसे में डीजल की महंगाई ने किसानों को आर्थिक संकट में डाल दिया है। जिन किसानों के पास खुद का पंपिंग सेट नहीं है, उन्हें किराए पर मशीन लानी पड़ती है, जिससे लागत और बढ़ जाती है।
छोटे और सीमांत किसान, जिनकी जमीन एक या दो बीघा है, वे इस संकट से सबसे अधिक प्रभावित हैं। उनके पास सीमित संसाधन होते हैं, और ज्यादा खर्च उन्हें कर्ज की ओर धकेल देता है।
प्राकृतिक आपदा या प्रशासनिक विफलता?
इस स्थिति को सिर्फ प्राकृतिक आपदा कहना काफी नहीं होगा। सरकारी तंत्र की विफलता ने इसे और गंभीर बना दिया है। यदि समय रहते नहरों की सफाई होती, जल संचयन योजनाएं चलाई जातीं और किसानों को वैकल्पिक सिंचाई साधनों की सुविधा दी जाती, तो शायद संकट की तीव्रता इतनी नहीं होती।
आज भी किसान सोलर पंपिंग सेट या ड्रिप इरिगेशन जैसी तकनीकों से अनभिज्ञ हैं, या फिर उन्हें मिलने वाली सब्सिडी तक उनकी पहुंच नहीं है।
किसानों की उम्मीद: एक नजर आसमान पर
अब जबकि किसान डीजल के बढ़ते बोझ के साथ सिंचाई कर रहे हैं, उनके पास मौसम की कृपा के सिवा और कोई चारा नहीं बचा। हर सुबह की शुरुआत आसमान की ओर देखकर होती है—शायद आज बादल आएं, शायद आज बारिश हो।
कुछ किसानों ने तो धान की खेती छोड़कर दूसरी फसल लगाने की योजना बनाई है, लेकिन उसमें भी जोखिम है क्योंकि उस फसल को भी पानी की जरूरत होगी।
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